Saturday, December 6, 2014

कुछ महेंगे ट्रॉली बॅग में
कुछ पोटली-संदूको में
ख्वाब तो हम सबने क़ैद कर रखे है.

दिन गिनना तो कभी सीखा नहीं
और अब तो साल गुज़र चुके है
भूल गये है कि ताला कब लगाया था.

एक वक़्त था जब यह एहसास था
कि जो है जैसे है, वोह महफूज़ है
किसी और को ना हि दिखे, हमारे करीब है.

कभी रेलवे क़ि पटरियों पे
कभी टूटते चलते बसों में
उसी की टेक लगाकर रात काटते थे.

आज वास्तविकता कुछ और है
हार की निराशा से, रंज और विवशता से
हमारी पोटलियाँ भारी है.

तालें आज भी लगे है,
जिन्हें खोलने से हम कतराते है
सोचते है कि जो क़ैद है उसे क़ैद हि रहने दें.


खुल कर जीने की आदत कब छूटी, यह भी भूल गये.